परमाणु अस्त्रों को महाविनाशकारी हथियार (weapons of mass destruction) के श्रंखला मे रखा जाता है। परमाणु बम को नाभिकीय अस्त्र भी कहा जाता है। यह एक विस्फोटक यंत्र है जिसकी विध्वंसक शक्ति का आधार नाभिकीय अभिक्रिया होती है। यह अभिक्रिया दो प्रकार की हो सकती है- नाभिकीय संलयन (Nuclear fusion) या नाभिकीय विखण्डन (nuclear fission)। दोनो ही प्रकार की अभिक्रिया के परिणामस्वरूप थोड़े ही ईंधन से भारी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती है। आज का कोई एक हजार किलो बड़ा नाभिकीय हथियार कई अरब किलो के परम्परागत विस्फोटकों से अधिक ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है/ इनसे खतरा समस्त मानव जाती को है।
आज के युग को परमाणु युग भी कहा जा सकता है। क्यों कि जिस तरह से परमाणु अस्त्रों की होड़ चल रही है दुनिया पर सदैव महाविनाश का खतरा बना हुआ है। इस वक्त दुनिया में नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं जिनमें अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इस्राएल और उत्तर कोरिया शामिल हैं। इनमे से पहले पांच देशों का 1970 तक इस क्षेत्र में एकाधिकार था। अमेरिका ने पहली बार न्यूक्लियर परीक्षण 1945 में किया था। अंतिम परीक्षण 1992 में किया गया था। अमेरिका ने कुल 1054 बार परीक्षण किया है। रूस ने 1949 में और ब्रिटेन ने 1952 में परीक्षण किया था। रूस 715 तो यूके 45 बार परीक्षण कर चुका है। भारत में इंदिरा गांधी की सरकार ने 18 मई 1974 को पहला परमाणु परीक्षण किया था। इसके बाद अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में 11 मई और 13 मई 1998 को राजस्थान के पोखरण में 5 परमाणु परीक्षण किए गए थे। उत्तर कोरिया इस समूह मे शामिल होने वाला सबसे नवीनतम देश है। इसने पहली बार 2006 में और अंतिम बार 2013 में परमाणु परीक्षण किया था। और इसराइल एक मात्र ऐसा देश है जो अपने पास परमाणु बम्ब होने का अधिकारिक तौर पर न तो कभी पुष्टि करता और न ही इंकार करता है। वह अपने परीक्षणों के बारे मे भी चुप रहता है।
विश्वभर में परमाणु बमों की वास्तविक संख्या के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। परंतु परमाणु परीक्षणों के आधार पर अनुमानित अमेरिका के पास 7,650, रूस के पास 8,420, ब्रिटेन के 225, उत्तर कोरिया के पास 10, इसराइल के पास 80 के लगभग परमाणु बम हो सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों पर नजर रखने वाली संस्था स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति शोध संस्थान (सिपरी) का अनुमान है कि 2019 की शुरुआत में दुनिया में परमाणु हथियारों की संख्या 13,865 थी।
अतः परमाणु हथियार का खतरा किन्हीं विशेष राष्ट्रों तक ही सिमित न होकर समस्त मानव सभ्यता को है। और इसको पहले-पहल कोई भी इस्तेमाल कर सकता है। पर क्या ऐसा सभी लोग सोचते हैं? या कि विकसित और परमाणु समपन्न देशों के राय इससे अलग है? ज्यादातर विकसित देशों में यह आम धारणा है कि परमाणु हथियार किसी तीसरी दुनिया के लीडर के हाथों मे और भी खतरनाक हो सकते हैं। इस सन्दर्भ में मानव शास्त्री गुस्टरसन बताते हैं की ज्यादातर नाभिकीय हथियार वैज्ञानिक यह मानते हैं की न ही अमरीका, न रूस, और न ही कोई यूरोपीय देश ही इन हथियारों का पहले इस्तेमाल करेगा। यदि कोई करेगा तो कोई तीसरे दुनिया का देश ही करेगा। यहाँ तक कि अमरीकी रक्षा विशेषज्ञ, बुद्धजीवी, राजनेताओं में यह आम धारणा है कि विश्व केवल पांच अधिकारिक नाभिकीय हथियार वाले देशों के साथ अनिश्चित कालीन सुरक्षित भविष्य मे रह सकता है। लेकिन इन नाभिकीय हथियारों का प्रसार तीसरी दुनिया के देशों में, विशेषकर मुस्लिम दशों में, होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है।
ज्यों ही हम दैनिक दिनचर्या मे नाभिकीय या परमाणु हथियारों के बात सुनते है तो हमेशा हमे अब तक सबसे पहला और सबसे अधिक विनाशकरी प्रयोग याद आ जाता है। हमे अभी भी पर्ल हार्बर पर जापान के हवाई हमले के उपरांत अमरीका का दूसरे विश्व युद्ध मे सम्मिलित होना और उसके अंत के लिए एक नहीं परंतु दो- दो परमाणु हमले करना याद आ जाता है। हिरोशिमा और नागासाकी दो जापानी शहरों पर दो दिन के अंतराल पर 7 और 9 अगस्त 1945 को बी-29 बमवर्षक लड़ाकू विमानों का अमरीकी हमला परमाणु खतरे की जीवंत स्मृति वायप्त है। इसके उस समय के भारतीय संदर्भ मे गांधीजी स्वत: ही स्मरण हो आते हैं। इसके बारे में रामचंद्र गुहा अपनी किताब- गांधी 1919-1948, द यीयर देट चेंजड द वर्ल्ड- मे लिखते हैं कि अमरीका के युद्ध मे सम्मिलित होने को ले कर पूछे गए सवाल के जवाब मे गांधीजी ने कहा था कि वह नहीं जानते कि क्या अमरीका युद्ध में प्रवेश को टाल सकता था कि नहीं। परन्तु उनका अपना मानना था की अमरीका को तटस्थ रह कर युद्धरत देशों के बीच एक मध्यस्थ का काम करना चाहिए था। अमरीका ही एक अकेला राष्ट्र था जोकि यह काम कर सकता था। परंतु उसके युद्ध में सम्मिलित होने से विश्व में कोई महान शक्ति नहीं बची है जो मानव सभ्यता को इस विध्वंस से बचा सके।
हालाँकि, 1945 के बाद से नाभिकीय हथियारों का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया है। लेकिन खतरा लगातार बरकार है और कभी कभी तो बाल-बाल बचने के मामले हुए हैं। जैसे कि जानबूझ कर तनाव को बढ़ावा देने से होने वाले (जैसे 1962 में क्यूबाई मिसाइल का संकट) या गलत धारणाओं और गलत गणनाओं के कारण (जैसे 1983 में एबल आर्चर संकट) होने वाले।
जिस प्रकार से हम सिर्फ नाभकीय हथियार का नाम सुनते ही सहम जाते हैं तो जो लोग दिन रात हथियारों के बनाने के काम मे लगे रहते हैं, उनकी इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है। उनके युद्ध और उसके विध्वंश के विचार को लेकर क्या मानना है। याकि युद्ध का इसका मानव सभ्यता पर क्या प्रभाव पड़ेगा लो लेकर उन लोगों का क्या विचार है? क्या वह भी अपने किए गए काम को खतरनाक समझते हैं? क्या वह भी इस को कमतर आंकतें है/ या इन मोटे शब्दों मे वह इसको मानव समाज के संदर्भ मे कैसे देखते है? या कि वे इस संदर्भ सोचते भी हैं या नहीं।
कुछ इन्हीं विषयों को लिकर एक मानव वैज्ञानिक ने नाभिकीय हथियारों के प्र्योगशाला मे काम करने वाले वैज्ञानिकों पर काम किया है और कुछ महत्वपूर्ण जानकारी उजागर की है। मानव शास्त्री ह्यूग गुस्टरसन (Hugh Gusterson) ने अपने फील्डवर्क के माध्यम से एक अमरीकी नाभिकीय प्रयोगशाला, लौरंस लिवरपूल नेशनल लैबोरेटरी का अध्ययन किया है। यह वही संस्थान है जहां कि न्यूट्रोन बॉम्ब और एम एक्स मिसाइल के प्रक्षेपास्त्र को डिजाइन किया गया था। अपने गहन अध्ययन के द्वारा गुस्टरसन इन लैबोरेटरी के अति गोपनीय संस्कृति के भीतर ले जाते हैं। और इनमे कार्यरत वैज्ञानिकों के जीवन और दुनिया मे व्याप्त डार्क ह्यूमर, गोपनियता, और अनुशासनबद्ध भावनावों का अन्वेषन करते हैं।
अपने रिसर्च के दौरान संयोग से उन्हें कई आश्चर्यजनक बातों का पता लगा। जैसे कि यह वैज्ञानिक जो न्यूक्लीयर हथियार बनाते है इसे जरा भी खतरनाक नहीं समझते। अलबत्ता इसके वे अपने काम को महत्वपूर्ण और सम्मानजनक समझते हैं। ये वैज्ञानिक किसी खास समूह से नहीं आते बल्कि विभिन्न समूहों से सम्बन्ध रखते हैं इसमें लिबरल भी आते हैं जो कि वियतनाम युद्ध का विरोध करतें है। और इसमे कट्टर भी आटें हैं जो की वियतनाम के पक्षधर।
और कैसे इनका समस्त जीवन ही गोपनीय होता है। बाहरी दुनिया और यहाँ तक के उनके परिवार से भी वह अपना रोजमर्रा के काम को साझा नहीं कर सकते। उनके कार्य के अनुबंध और सुरक्षा के लिए वह अपने कार्य को अपने घर नहीं ला सकते हैं और न ही अपने कार्यस्थल के नैराश्य को किसी को बता सकते हैं। और यदि न्यूक्लीयर हथियार के कार्य को छोड़ कर दूसरी जगह जाना चाहते हैं तो न ही अपने भावी नियोक्ता को अपने किये काम दिखा ही सकते है। दुसरे शब्दों में उन्होंने अपने कैरियर को राष्ट्रीय अमरीकी सुरक्षा के लिए गिरवी रख दिया होता है।
तो प्रश्न यह उठता है कि इतनी विषमताओं के बावजूद वैज्ञानिक कैसे काम करते हैं? या की वे इतने बलिदान क्यों करतें हैं। गुस्टरसन बताते हैं कि इसके दो महत्वपूर्ण कारण हैं। यहाँ रह कर ये किसी खास बंधन की चिंता किये बिना, भरपूर फण्ड का उपयोग कर, प्रतिबन्धविहीन विज्ञान की खोज कर सकते हैं। ज्यादातर हथियार वैज्ञानिक विश्वविद्यालय की नौकरी नहीं पसंद करते है चूँकि वहाँ उन्हें अच्छा वेतन नहीं मिलता है, उन्हें लगातार अनुदान प्रस्ताव लिखना पड़ता है। और टेन्योर सिस्टम से अपना रास्ता बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। और वह इंडस्ट्री में भी काम नहीं करना चाहते क्यों की वहां काम करने पर उन्हें अपने रेसिर्च की आजादी को सिमित करना पड़ता है।

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