दूर बहुत दूर,
पथ मुझे दीखता मेरा,
किन्तु धुंधला सा,
घिरा घुप्प कोहरे में,
उस पथ और मेरे बीच की राह,
डूबी है असफलता के चिरकालीन अंधकार में,
कोई रौशनी नहीं,
जो रौशन करे इस अबूझ राह को,
किनकर्त्वयविमूढ़ हो अपने स्थान पर ही,
निश्चल खड़ा,
सोचता हूँ मैं
की प्रकाश की किरने गतिमय होंगी,
उस पथ के स्थान से
या दहन होना होगा श्वास को मेरे
उस प्रकाश की रौशनी के लिए
डॉ. धनंजय कुमार
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