Friday, 6 November 2020

जफ़र

 

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो थी

जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो थी

ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र क़रार

बे-क़रारी तुझे दिल कभी ऐसी तो थी

उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू

कि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो थी

अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया

ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो थी

अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़

सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो थी

पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ

आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो थी

निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल दिल

वो तिरे हाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो थी

चश्म-ए-क़ातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन

जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो थी

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार

ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो थी 

~जफ़र 

No comments:

Post a Comment